Nov 24, 2015

जीवन की विडम्बना

इस जीवन की विडम्बना है ..एक वक़्त ऐसा था जब ज़िंदगी समुन्दर कि लहरों कि भांति स्वच्छंद थी, किसी के घेरे में सिमटी हुई नहीं थी, मगर आज समय के घेरे में सिमटती चली गई है, अपितु समय के  घेरे से  ज़िंदगी चुपके से झुक कर निकल भी गई है अर्थात एक ऐसा वक्त, जब ना बाहें हैं, ना घेरा है और ना ही वह ज़िंदगी, जिसकी कभी हर एक सांस हमारी होती थी।
     नज़रें घुमा कर देखता हूँ तो लगता है कि ज़िंदगी कहीं दूर, किसी कोने में व्यंग से मुस्कुरा रही है और  वक़्त आकर चला गया है या यूं कहूँ की बस छू के चला गया है। अब तो वो जगह भी नहीं दिखाई दे रही जहां अपनी पहचान छिपी हो, अपने कदमों के निशान छिपे हो, सच! कहाँ से कहाँ आ गए ? यदि यही आना था तो चले ही क्यों थे, सपने ही क्यूं देखे थे? आज आँखें कुछ खोज सी रही हैं। आज मन कहीं कुछ ढूंढ़ रहा है। मन का भाव तो वही है पर तरीका बदल गया है। माथे पर आज शिकन है। हाथों मे एक दबाव ना होकर एक फिसलन है। पैरों की गति धीमी है। आज मेरी सांस फूल गई है और सीने का उतार चढ़ाव हरेक धड़कन की गिनती का हिसाब दे रहा है। जीवन के इन वर्षों में मैंने न जाने क्या-क्या देखा- आते-जाते दिन-रात, आश्चर्यचकित कर देने वाले उतार-चढाव, आशा-निराशा का संघर्ष और बनते-बिगड़ते सम्बन्ध, इक्कीसवीं शताब्दी में अब हम इतने साधन संपन्न हो गए हैं कि बीसवीं शताब्दी की शुरूआती तकलीफों की कल्पना भी नहीं की जा सकती। उस युग के मध्यम वर्ग के लिए पेट भरना बहुत बड़ी समस्या थी। बिजली नहीं, पानी नहीं, स्कूल नहीं, अस्पताल नहीं, सड़कें नहीं, आने जाने के साधन नहीं। न जाने किस तरह वे लोग जीते रहे होंगे ? फिर भी लोग जीते थे। विश्व में असंख्य प्राणी जन्म लेते हैं और पुराने प्राणियों को प्रतिस्थापित कर देते हैं। भू-संरचना, जलवायु, वनस्पति और जलप्रवाह निरंतर परिवर्तित होते हैं।  इन 32 वर्षों की जीवनयात्रा ने कई सबक सिखाए, कुछ समझ में आए, कुछ नहीं आए। मेरा यह निष्कर्ष बनता  जा रहा है कि वक्त से मुकाबला करना  मेरे वश में नहीं है, हम वक्त के गुलाम हैं। बहती हुई तेज धार के विपरीत तैरने वाले कुछ साहसी लोगही समय से टक्कर लिया करते हैं लेकिन मैंने आज  स्वयं को धार की अनुकूल दिशा में डाल दिया। अब तक मेरा आधा जीवन बीत गया। कोल्हू के बैल की तरह, मैं जहाँ से शुरू हुआ था, गोल घूमकर वहीं खडा हूँ। आज मेरी अपनी औकात क्या है ? अपने परिवार का बंधुवा मजदूर।  जिन्दगी तो खैर चलती रहेगी, जब तक साँस है, तब तक आस है लेकिन सच यह है कि इस दुनियां में, इस देश में जन्म लेकर मुझे साँस लेने में बहुत असुविधा हो रही है। मेरी हालत उस मरीज की तरह है जो आक्सीजन के भरोसे जिंदा है पर मन-ही-मन मना रहा है कि कोई आक्सीजन पाइप खींच कर निकाल दे तो छुट्टी मिले। नतीजा…ज़िंदगी बस चल रही है…शायद घिसट भर रही है क्यूंकि उसकी बैसाखी कहीं गिर गई है या फिर शायद उसे किसी ने खींच कर एक ओर पटक दिया है और जिंदगी बस मंथर मंथर अंतहीन सी चल रही है हम प्रवाह मात्र हैं कतिपय परिवर्तन करने कि स्थिति में नहीं …यही इस जीवन की विडम्बना है ...........

क्या कहूँ, क्या हूँ मैं उद्भ्रांत? विवर में नील गगन के आज

वायु की भटकी एक तरंग, शून्यता का उज़ड़ा-सा राज़।

एक स्मृति का स्तूप अचेत, ज्योति का धुँधला-सा प्रतिबिंब

और जड़ता की जीवन-राशि, सफलता का संकलित विलंब।"

No comments:

Post a Comment

POST A COMMENT...

इन्हें भी पढ़ें : प्रकाशित आलेखों के शीर्षक