कुछ दिन पूर्व पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी के नाम पर चंदौली जिले का मुगलसराय जंक्शन का नाम बदलकर अब पंडित दीनदयाल उपाध्याय जंक्शन कर दिया गया था। इस परिवर्तन से यात्रियों में ये उम्मीद जगी थी कि शायद अब यह से गुजरने वाली ट्रेनें ही समय से चलने लगेगी, अगर कुछ और नही सुधरा तो, लेकिन ऐसा कुछ भी नही हुआ, स्थिति पूर्ववत है।
इसी प्रकार आजकल यूजीसी का नाम बदल कर उच्च शिक्षा आयोग किये जाने का ड्राफ्ट चर्चा में है और कहा जा रहा है कि इससे गुणवत्ता में अभूतपूर्व सुधार होगा। लेकिन लोग निहितार्थ कुछ और ही निकल रहे हैं। काश अबकी वास्तव में कुछ बदलाव आए सिर्फ प्रोपोगंडा मात्र न हो???
इसी प्रकार आजकल यूजीसी का नाम बदल कर उच्च शिक्षा आयोग किये जाने का ड्राफ्ट चर्चा में है और कहा जा रहा है कि इससे गुणवत्ता में अभूतपूर्व सुधार होगा। लेकिन लोग निहितार्थ कुछ और ही निकल रहे हैं। काश अबकी वास्तव में कुछ बदलाव आए सिर्फ प्रोपोगंडा मात्र न हो???
अर्थात स्थापित सत्ताधारी और उसके समर्थक सुधार का ढोंग कर यह भ्रम बनाने की कोशिश करते हैं कि 1-जो है वह ख़राब है ,2- वे बेहतरी के लिये बहुत चिंतित हैं !
जबकि उनका असली मक़सद निजी फ़ायदों के लिए मौजूदा प्रतीकात्मक ही सही , लोक उत्तरदायी ढाँचा को नष्ट कर बाज़ार के अनुकूल परिवेश निर्माण है ।
जबकि उनका असली मक़सद निजी फ़ायदों के लिए मौजूदा प्रतीकात्मक ही सही , लोक उत्तरदायी ढाँचा को नष्ट कर बाज़ार के अनुकूल परिवेश निर्माण है ।
यह राजनीतिक अर्थव्यवस्था के लगभग सभी हलकों (sectors) में हो रहा ।
उनके सुधार के मानक भी जन हित विरोधी हैं।
कोई पूछे कि ज्ञान के निर्माण, अविष्कार, संग्रह, प्रयोग, परिष्कार , सातत्य, बदलाव, विस्तार और प्रसार का लक्ष्य क्या निजी पूँजी की चाकरी है ?
या उसका समाजोपयोगी और मुक्ति दायी होना ?
——
कोरपोरेट लोन माफ़ी के लिए अरबों रुपए पर कोई बहस नहीं पर लगातार शिक्षा के गिरते बजट को ‘सुधार’ मानना तथा इसे बाज़ार की दान दया पर छोड़ना - इसी अधोगामी तर्क का विस्तार है ।
क्या दुनिया भर के दक्षिणपंथी तर्कों और बहसों से लोग अनभिज्ञ हैं -जिसने मानवीय गतिविधि और संस्था -दोनों के रूप में “चेतना” को एक हिंसक, अवैज्ञानिक , मनुष्यता विरोधी और यथास्थितिवादी औज़ार में तब्दील कर दिया है ?
उनके सुधार के मानक भी जन हित विरोधी हैं।
कोई पूछे कि ज्ञान के निर्माण, अविष्कार, संग्रह, प्रयोग, परिष्कार , सातत्य, बदलाव, विस्तार और प्रसार का लक्ष्य क्या निजी पूँजी की चाकरी है ?
या उसका समाजोपयोगी और मुक्ति दायी होना ?
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कोरपोरेट लोन माफ़ी के लिए अरबों रुपए पर कोई बहस नहीं पर लगातार शिक्षा के गिरते बजट को ‘सुधार’ मानना तथा इसे बाज़ार की दान दया पर छोड़ना - इसी अधोगामी तर्क का विस्तार है ।
क्या दुनिया भर के दक्षिणपंथी तर्कों और बहसों से लोग अनभिज्ञ हैं -जिसने मानवीय गतिविधि और संस्था -दोनों के रूप में “चेतना” को एक हिंसक, अवैज्ञानिक , मनुष्यता विरोधी और यथास्थितिवादी औज़ार में तब्दील कर दिया है ?
।।कतिपय fb कमेंट से साभार।। शशिकांत सर् 👍👌!!
सहमति असहमति पूर्ण आपके विचारों /कमेंट्स का स्वागत है, ।।
*लेख का उद्देश्य किसी का भी या शासकीय नीति का विरोध करना नही है अपितु शोधपरक पहलुओं की खोज करना है।
** न ही व्यक्तिगत है।
** न ही व्यक्तिगत है।
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