Jul 30, 2018

डिग्री कॉलेज कॉपियों का मूल्यांकन: कतिपय परीक्षकों के पौ-बारह


सर्वत्र विदित है कि डॉक्टरों को जैसे बरसात का बेकरारी से इंतजार रहता है, वैसे ही परीक्षाओं के बाद डिग्री कालेज के कतिपय सिद्धहस्थ प्रोफेसरों को कॉपियां जांचने का इंतजार रहता है। मैंने कही पढा था कि बिहार के कटैये पंजाब के फसल की बैसाखी लूटने को बेकरार रहते थे। लेकिन बुरा हो अत्याधुनिक मशीनों का, यह मजा ही किरकिरा कर दिया कि खलिहानों के रतजगे- लोकराग-रंग सब गायब ही हो गए।
ओएमआर के उपयोग के बाद, हालांकि कॉपियां जांचने का काम अभी उतना नीरस नहीं हुआ है क्योंकि फिर भी केंद्रीय मूल्यांकन में अभी रौनक है। धोती-लंगोटी संभाले कपियां गैंग के गिरोह, बिना आमन्त्रण पत्र धारक, परीक्षकों के झुंड, विश्वविद्यालय कैंपसों को जुगाड़ से ऐसे ढूंढ लेते हैं, जैसे मरे जानवरों को गिद्ध। उनमें भी संपातियों की नजर सीधे अशोक वाटिका पर रहती है अर्थात कोठार। कलयुग के अर्जुनों की आंखें कॉपियों के बंडलों पर ही रहती हैं। भूले हुए पहाड़े फिर रट ही जाते हैं। हर मंडी का भाव जुबानी याद है। मजदूरी वहां पहले, जहां रेट और कापियों की संख्या ज्यादा है। नंबर बढ़वाने का धंधा हालांकि बार कोडिंग की वजह से लगभग मृतप्राय है। लेकिन समझदार छात्र कॉपियों में सीधे दान-दक्षिणा अवश्य रख देंते हैं, यदि कोडिंग वालों की दृष्टि से बचा रह गया तो वह चढ़ावा ऊपर से है। कलयुग में विश्वविद्यालयी मूल्यांकन व्यवस्था में दत्तचित्त परीक्षक ही सच्चा योगी है। वह नित्य क्रियाओं में भी एक सेकंड बरबाद नहीं करना चाहता। पाबंदी न हो, तो दिन-भर में हजार दो हजार कॉपी जांच दें अर्थात नम्बरो का अंकन कर दें। यदि जुगाड़ फिट हो, तो हजार रात में भी , लेकिन ऐसा सौभाग्य शायद ही अब किसी को मिलता हो। हालांकि यह तो सामान्य परीक्षक की गति है। पुराने अनुभवी लोग बताते हैं कि सुपरसोनिक तो एक चावल से हांडी पहचान जाते हैं। कॉपी के भीतर जाने की जरूरत ही नहीं। बिना झंझट लिए सब ऊपर ही ऊपर क्लियर कर देते हैं।
कलयुग के ख्याति लब्ध चक्रवर्ती परीक्षको को सरस्वती का वरदहस्त प्राप्त है। वे हर जगह मौजूद हैं। दिन में कानपुर, तो रात में झांसी तो सुबह फिर आगरा या बरेली। जहां पूरे दिन में केवल पचास कॉपियां मिलती हों, उधर झांकना भी नहीं चाहते ऐसे दिग्गज। हालांकि कतिपय अयोग्य अर्थात व्यवस्था में न रमने वाले शिक्षक अगर मनोयोग से दिन में 25 या 50 उत्तर पुस्तिकाओं का मूल्यांकन करते हैं तो कई विश्वविद्यालय उन्हें DA न देकर उनके इस प्रयास को अनावश्यक और अनुपयोगी सिद्ध कर ही देते हैं क्योंकि उन्हें जल्दी रिजल्ट लाना है। इस प्रकार सुपरसोनिक लोग ठेके पर सामूहिक कत्ल के शौकीन बन ही जाते हैं। एक मेरे मित्र का कहना है कि , कौन कहता है कि फांसी देने को जल्लाद नहीं मिलते, ये कतिपय परीक्षक तो पैदल ही दौड़-दौड़कर पूरे देश की मूल्यांकन व्यवस्था को फांसी दे दें। कतिपय विश्वविद्यालयी जुगाड़ू परीक्षक उड़ाका दल व ऑब्जर्वर के कार्य हेतु दत्तचित्त सुयोग्य एवं अति कर्मठ, इमानदार हैं वह अपनी ड्यूटी नकल रोकने के महान लक्ष्य को पूरा करने में सेल्फ फाइनेंस के प्रैक्टिकल/वायवा या पैनल आदि में लगवाते है ताकि व्यवस्थाओं को लिफाफा बनाकर सफल बना सकें, उनके लिए मूल्यांकन बेगारी सी है। कालेजो के 9000 ग्रेड पे धारक ज्यादातर प्रोफेसर व विश्वविद्यालयों के प्रोफेसर इसे घृणित कर्म समझते हैं 30 प्रतिशत का इनकम टैक्स स्लैब उनके अरमानों पर पानी फेर देता है। इसलिए आप शोध ग्रंथ से नीचे का मूल्यांकन पसंद नहीं करते। कुछ को केवल केंद्रीय विश्वविद्यालयों के स्तर का ही पसंद है या फिर पियर टीम में मेम्बरी। इसमें हवाई सफर व vip लाभ होता है। फिर नियुक्तियों में भी कभी कभी कतिपय पौ-बारह हो ही जाती है।
अपने आसपास के विश्वविद्यालयों के मूल्यांकन केंद्रों पर निगाह रखें। वहा कपियां गैंग का आक्रमण कॉपियों पर हो रहा होगा, होने वाला होगा या हो चुका होगा और परीक्षक डोरी , डंगर लिए एक विश्वविद्यालय से दूसरे विश्वविद्यालय में कोटा पूरा करने के हर संभव प्रयास में लगे होंगे भला हो, प्राचार्य महोदयों का, जो उनके इस पुनीत कार्य हेतु झोली भर कृपा बनाये रखे अर्थात अधिकतम कार्यवकाश बिना बाधा बस प्रदान कर दें। ताकि इनका यह सीजन अच्छा हो जाय।
।।सहमति असहमति का स्वागत।। व्यक्तिगत निहितार्थ न ढूंढे।।

No comments:

Post a Comment

POST A COMMENT...

इन्हें भी पढ़ें : प्रकाशित आलेखों के शीर्षक